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किसी भी प्रकार के कागजी कार्य को संपादित करने के तरीके को जानना – समझना और हमारे मस्तिष्क में जो भी विचार आते हैं उसे किसी भी प्रकार के कसौटी पर परखे बिना साझा करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है !

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किसी भी प्रकार के कागजी कार्य को संपादित करने के तरीके को जानना – समझना और हमारे मस्तिष्क में जो भी विचार आते हैं उसे किसी भी प्रकार के कसौटी पर परखे बिना साझा करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है !

क्या आपको भी आते हैं अहम् ब्रह्मास्मि वाले भाव ?

Sudhakar Choudhary, January 17, 2025March 24, 2025

कल मैच देख रहा था, क्रिकेट का, इंडिया और आस्ट्रेलिया वाला । अचानक कुछ काम याद आ गया सो कुछ देर के लिए किसी और काम में ब्यस्त हो गया । जब लौट कर देखा तो पता चला शर्मा जी निकल लिए । के० एल० के बारे में आज – कल कोई बात नहीं करता, सो हम भी नहीं करते हैं । दूसरा opener हमलोग कोहली को ही मानते हैं, के० एल० का दूध – भात है । दूध – भात मतलब वह किस तरफ से खेलता है यह पता लगाना थोड़ा मुस्किल है, चयनकर्ता को शायद पता होगा । खैर, उसके बाद कुछ देर और मैच देखा, सब कुछ पटरी पर आ गया था, मैच पर हमारी पकड़ मजबूत थी कि अचानक से फ़ोन बजने लगा । मन नहीं था मेरा, पर आप कर भी क्या सकते हैं जब बड़े मालिक आप से बात करने कि इच्छा जता रहे हों । मतलब पिताजी का फ़ोन था सो लेना पड़ा । बात ख़त्म हुयी, आके देखा तो कोहली की पारी भी ! दुःख तो बहुत हुआ कि अब कौन नैय्या पार लगाएगा ? नहीं, ऐसा नहीं है कि खेवैय्ये की कमी है हमारी टीम में पर सभी कच्चे हैं अभी, सिख रहे हैं, जबकि सामने बहुत ही कुशल योग्यता और कुटिल रणनीति वाली टीम है । इसलिए दुःख तो था पर पता नहीं क्यों, धीरे – धीरे, मन के किसी कोने में ख़ुशी महसूस होने लगी थी । शायद, कुछ खास होने का एहसास हो रहा था । ऐसा लग रहा था जैसे मन कह रहा हो कि मेरी वजह से ही दोनों आउट हुए हैं, क्यूंकि जब तक मैं खेल देख रहा था तब तक तो सब सही था । ऐसे ख्याल आने लगे कि मैं चाहूँ तो बिना एक भी गेंद फेंके शर्मा जी और कोहली, दोनों को आउट कर सकता हूँ । पिली जर्सी वालों को मुझसे मिलना चाहिए था, पर तभी मैंने खुद को झकझोर दिया, बात आगे बढ़ने का खतरा था । अहम् ब्रह्मास्मि वाले भाव भी आ सकते थे ।

हम सब को ये ख्याल आता है कि हम बहुत खास हैं, बहुत अलग हैं, हम में कुछ बात है जो बाकि लोगों में नहीं है । कुछ हद तक यह मानना सही भी है । हर इंसान अलग है क्यूंकि भगवान अपनी खुद की रचनाओं की नकल नहीं करते, इंसान करता है । अगर हमारा आत्मविश्वास ऐसा बोल रहा है तो ठीक लेकिन अगर घमंड बोल रहा है तब थोड़ा सतर्क होने की जरुरत है । कुछ और ही बन जाने का खतरा हैं, मतलब बहुत ज्यादा अलग । घमंड आपको बाकियों से बहुत दूर ले जाता है जबकि आत्मविश्वास बाकियों के आस – पास ही रखता है पर आपको दिखाता अलग रूप से है ।

जब हम सड़क पर चल रहे होते हैं तो कई बार हम ऐसा सोचते रहते हैं कि सब हमारी तरफ ही देख रहे होंगे, पर ऐसा है नहीं । लोग उलझे हैं अपनी उलझनों में । किसी को फुर्सत नहीं है आपकी तरफ देखे और फिर आपके बारे में सोचे । अगर कोई देख भी रहा है तो ज्यादा संभावना है कि उसकी बस नजर पड़ी है आप पर, उसका ध्यान नहीं है, उसके ध्यान में कोई दूसरी बात चल रही है । ये आत्ममुग्ध वाली सोच आपका भ्रम भी हो सकती है और घमंड भी । भ्रम को आप तर्क से दूर कर सकते हैं लेकिन घमंड तर्क से दूर नहीं होता, ठोकर खानी पड़ती है उसके लिए, बड़ा जोर का धक्का चाहिए घमंड टूटने के लिए । अगर तर्क की बात करें तो इसे समझना बड़ा ही आसान है । आप अपनी स्थिति बदल दीजिए, बस । आपकी नजर जब किसी पर पड़ती है तब आप कितनी देर उस व्यक्ति के बारे में सोचते हैं ? जितना आप दूसरे के बारे में सोचते हैं उतना ही लोग आपके बारे में भी सोचते हैं । ऐसा है कि आदमी खुद के रंग में रंगा रहता है उसे किसी और का रंग दिखाई ही नहीं देता, किसी और की खूबियां दिखती ही नहीं । जब तक किसी इंसान की चमक हमारी आँखे न चौंधिया दे, उस इंसान पर हम ध्यान नहीं देते ।

करीब – करीब 7 अरब और हैं आपके जैसे इस धरती पर और सारे मिलकर भी धरती के एक तिहाई भाग को भी पूरी तरह भर नहीं पाते, खेत – खलिहान – सड़क – जंगल भी तो हैं । बाकि तीन चौथाई इलाका तो पानी ने अपने कब्जे में ले रखा है । आगे इस धरती जैसे 9 और हैं जो सूर्य के चक्कर में हैं और सूर्य जैसे न जाने कितने हैं इस ब्रह्माण्ड में । अब सोच कर देखिये कि कितना अधिकार रखते हैं हम इस ब्रह्माण्ड पर । गणितीय भाषा में कहें तो इसे ही नगण्य कहते हैं और हमें लगता है कि हम ही ब्रम्ह हैं, अहं ब्रह्मास्मि, बकवास है ये । बगल के गांव वाले तो ढंग से पहचानते नहीं हमें और हमें लगता है कि इस ब्रह्माण्ड पे हमारा हक़ है । ये सब कहने की बातें हैं । आध्यात्मिक गुरुओं ने हमारे मन में ये बातें डाल दी ताकि हमारा मनोबल गिरे नहीं, हम आलसी या अकर्मण्य न हो जाएँ, हमारी जीने की ललक ख़त्म न हो जाये । हम कुछ न कुछ करके इस भेड़ – चाल में उलझे रहे, उनको सुनते रहे, जिस से उनका भी धंधा चलता रहे । कहीं नहीं हैं हम, बस एक जीव हैं जैसे बाकीं जीव हैं । अंतर बस यह है कि हमारी तरह उनके पास अपनी भावनाओ को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं, समझदारी नहीं है या शायद है भी, बस हमें पता नहीं । आखिर गाय घास चरने के बाद उसी खूंटे पे आकर क्यों खड़ी हो जाती है, कहीं और क्यों नहीं चली जाती या जब हम गुस्से में उसे मारने के लिए कोई डंडा उठाते हैं तब अपने वचाव के लिए वो भागने की कोशिश क्यों करती हैं । इसलिए समझदारी तो उनमें भी है बस हमारी समझदारी से मेल नहीं खाती या तो वो हमसे ज्यादा समझदार हैं या फिर कम या फिर उनकी समझदारी का प्रकार दूसरा है, इंसान वाला नहीं ।

मेरे एक मित्र हैं, नाम नहीं लूंगा, वो कुछ बुरी आदतों के प्रभाव में आ गए थे । उन्हें किसी ने कुछ सलाह दी, सुधरने की ही दी होगी शायद । मेरे मित्र ने जो जबाब दिया उस भले सज्जन को वह सुनिए – आप एक बार मिले हैं मुझसे, अभी 10 मिनट बात हुई है हमारी और आप यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि मुझे जिंदगी किस तरह से जीनी चाहिए ? आपने 10 मिनट मेरे बारे में सोचा और एक सलाह दे डाली, अब जरा मेरे बारे में सोचिये क्यूंकि मैं तो अपने बारे में हर समय सोचता रहता हूँ । मुझे यह तर्क उस समय तो बड़ा ही सटीक लगा था पर अब नहीं लगता । उसके दो कारण हैं । उस सज्जन को पहली नजर में जो खामियां महसूस हुई मेरे मित्र में, उन्होंने बस उसी को बोला । अब एक चावल को देखकर ही तो हमलोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं न की पूरी कड़ाई की चावल पक गयी होगी । चंद बातों से पता चल जाता है कि सामने वाला इंसान किस सोच का है । सज्जन अनुभवी होंगें, बात समझ में आ गयी होगी उनके । दूसरी बात, मेरे मित्र का यह कहना कि – वो अपने बारे में हमेशा सोचते रहते हैं । हो सकता है वह सोचते रहते हो पर इसमें शक की गुंजाइश बिलकुल है कि वो अपनी गलतियों को पूरी पारदर्शिता से देखते होंगें । वह जरूर अपने आपको सही साबित करने के लिए कोई न कोई बहाना भी ढूंढते होंगें ताकि उनका मन उनके ही किये कर्मों के खिलाफ बगावत न कर दे । अब चोर के पास तो उसके द्वारा किये गए चोरी का तर्क होता ही है पर वह तर्क कितना सही है यह फैसला तो कोई जज ही करता है । इसका कारण यह है कि चोर खुद के लिए निष्पक्ष नहीं हो सकता या नहीं हो पाता । मुझे लगता है कि हमें जज की बात सुननी चाहिए, बिलकुल ईमानदारी से, मेरे मित्र को भी सुननी चाहिए थी उस सज्जन की बात ।

हम यह मान कर बैठे हैं कि दुनियां की सारी गतिविधियों के केंद्र में हम ही हैं, हम ही धुरी हैं । अगर मान कर नहीं भी बैठे हैं तो कम से कम हमारे अवचेतन दिमाग में तो यह भाव रहता ही है । असलियत में हम – आप कुछ नहीं हैं । जिस तरह इंसान ने अपने मनोरंजन के लिए टीवी बनाया, उसमें किरदार गढ़े और फिर कुछ परिस्थितियों की रचना की ताकि जब उस परिस्थिति में वो किरदार फंसे तब उसे देखें और अपना मन बहलायें । ठीक उसी तरह भगवान् ने भी यह दुनियां बनायीं है, हमारे और आपके जैसे किरदार गढ़े और जब हम किसी परिस्थिति में फंस कर परेशान होते हैं तब वह हमें देख कर अपना मन बहलाते हैं । कभी मायूस  होते हैं, कभी हँसते हैं, खूब हँसते हैं, लोट – पोट होकर । कोई तो बोल रहा था कि कई बार तो गिर भी जाते हैं शेषनाग की शैय्या से, हँसते – हँसते ।

चलिए, फिर मुलाकात होगी !

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