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किसी भी प्रकार के कागजी कार्य को संपादित करने के तरीके को जानना – समझना और हमारे मस्तिष्क में जो भी विचार आते हैं उसे किसी भी प्रकार के कसौटी पर परखे बिना साझा करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है !

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किसी भी प्रकार के कागजी कार्य को संपादित करने के तरीके को जानना – समझना और हमारे मस्तिष्क में जो भी विचार आते हैं उसे किसी भी प्रकार के कसौटी पर परखे बिना साझा करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य है !

समय और परिस्थितियों की मदद से क्या जिंदगी हमें तराशती रहती है ?

Sudhakar Choudhary, January 19, 2025March 24, 2025

हम धीमे या फिर तेज हो सकते हैं, हमारी आगे बढ़ने की ललक धीमी या फिर तेज हो सकती है, हमारी विकास की रफ़्तार धीमी या तेज हो सकती है, पर समय की गति नियत है, एक समान है, सबके लिए एक समान है । बिलकुल सूर्य की रोशनी की तरह जो सब पर समान रूप से पड़ती है । ऐसा नहीं है कि हमारे लिए समय का चक्र अलग है और अंबानी – अडानी के लिए अलग समयचक्र । फिर कभी – कभी ऐसा क्यों लगता है कि समय बड़ी तेजी से निकल गया या फिर समय शायद रुक गया है । यह निर्भर करता है इस बात पर कि हम अपने जीवकोपार्जन के तरीके में कितने मशरूफ हैं । अगर हम अपने काम में ज्यादा मशरूफ हैं तो हमें लगता है कि समय बड़ी तेजी से गुजर रहा है और इसके उलट अगर हम निकम्मे हैं या बिना काम के हैं तो ऐसा लगता है जैसे समय ही समय है अपने पास, गुजरता ही नहीं । हालाँकि कोई यह मानता नहीं कि वह निकम्मा है क्यूंकी इसे बुरा मानते हैं लोग । जिसके पास कोई काम ना हो उसे निकम्मा ही कहते हैं इसमें बुरी लगने वाली कोई बात नहीं । फिर भी अगर किसी को बुरा लग रहा है तो इसका मतलब है कि – वो कोई काम तो नहीं कर रहा पर व्यस्त रहने का दिखवा जरूर कर रहा है । उसे बुरा लगा क्यूंकि उसका भेद जगजाहिर हो गया । मन तो उसका भी मान ही रहा था कि वह निकम्मा है । खैर, मैं भी कहाँ भटक जाता हूँ, मुद्दे पर लौटते हैं ।

हम जो काम कर रहे हैं अगर वह सार्थक है, उस काम को करने से हमें ख़ुशी मिलती है, उस काम का निष्कर्ष वही है जैसे हमने सोचा था या सीधी भाषा में कहें तो यदि वह काम हमारा जूनून है तो फिर समय जल्दी गुजरता हुआ प्रतीत होगा । वहीँ दूसरी तरफ अगर वो काम हम सिर्फ अपनी जीविका उपार्जन के  लिए कर रहे हैं, उससे हमारा कोई व्यतिगत लगाव नहीं है तो समय गुजारना थोड़ा मुश्किल हो जाता है । विज्ञान में इसे ही सापेक्षवाद कहते हैं जिसका सिद्धांत आइंस्टीन ने दिया था । जब उन्होंने यह सिद्धांत दिया तब लोगों को इसे समझने में बड़ी दिक्कत हुई, बहुत खत आये कि आप इसे आसान भाषा में समझाइए । आइंस्टीन ने जो कहा वह बड़ा दिलचस्प है, सुनिए – अगर एक गर्म स्टोव पर आपको 1 मिनट तक बैठने को कहा जाये तो वह 1 मिनट आपको 1 घंटा लगेगा, मतलब ऐसा लगेगा जैसे समय गुजर ही नहीं रहा पर जब किसी खूबसूरत लड़की के साथ आपको 1 मिनट तक बैठने को कहा जाये तो वह 1 मिनट आपको 1 सेकंड जैसा लगेगा मतलब ऐसा लगेगा जैसे समय कब गुजर गया पता ही नहीं चला । यही सापेक्षवाद है । समय दोनों ही स्थितियों में 1 मिनट ही है पर हमारी परिस्थियाँ बदल गयी । एक स्थिति में वो 1 घंटा महसूस होता है और दूसरे स्थिति में 1 सेकंड । सामान्य जिंदगी में जब आप ख़ुशी, संतुष्टि या आनंद का अनुभव कर रहे होते हैं तब समय जल्दी बीतता है, कम से कम ऐसा महसूस तो होता ही है हमें ।

समय नियत है, बिलकुल एक ही चाल है उसकी, वो अपनी चाल नहीं बदलता । हमलोगों को अपनी चाल बदलनी पड़ती है क्यूंकि हमारी परिस्थियाँ बदलती रहती हैं । जिंदगी कभी उठती है, कभी झुकती है, कभी दौड़ जाती है और कभी चल भी नहीं पाती । अलग – अलग रंग हैं इसके । इंसान और उसकी जिंदगी का सम्बन्ध ही अजीब है । ऐसा लगता है जैसे है तो हमारी ही लेकिन हमारे साथ नहीं है, बगल में है कुछ दुरी पर और नजर गड़ाए हुए है एक छड़ी लेकर, बिलकुल मास्टर साहब की तरह नए – नए सवाल लेकर हमें सुलझाने को कहती रहती है । अगर हमारी ही है ये जिंदगी तो फिर थोड़ी भी दया क्यों नहीं है इसे, कभी तो हमारे पक्ष में रहे, हमेशा हमें ही तौलती रहती है ।

हम सब ने बचपन में विक्रम – बेताल की कहानी पढ़ी है । बेताल हमेशा नए – नए पहेलियों से विक्रम को परेशान करता रहता है । विक्रम सोचता है कि यह शायद इसका आखिरी सवाल हो, पर नहीं ! बेताल फिर से एक नए सवाल के साथ आ के बैठ जाता है विक्रम के कंधे पर । हम सब विक्रम हैं और बेताल है ये जिंदगी । जिस तरह विक्रम के पास जबाब देने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं था उसी तरह हम सब के पास भी कोई और दूसरा विकल्प नहीं है । हमें जिंदगी के सवालों का जबाब देना ही होगा ।

प्रतिभागी कितने भी शरीफ या बददिमाग हो, क्या फर्क पड़ता है । खेल तो सारा बिगबॉस रचता है । हमें लगता है कि फलाँ प्रतिभागी अच्छा है और चिल्लाँ बुरा है, पर ऐसा है नहीं । हमें ऐसा लगता है क्यूंकि हमें ऐसा लगवाया जाता है । जो प्रतिभागी थोड़ा अलग है या थोड़ा खास है या जिसमें कुछ बात है उसे थोड़ा और अलग दिखाया जाता है, थोड़ा और मुश्किल परिस्थितियों में डाला जाता है, ठीक वैसे ही जैसे खास इंसान को जिंदगी और अधिक मुश्किलों में डालती  है । असलियत में वह इंसान को परखती है । पहले उसे गरम करती है, फिर पिघलाती है और अंत में नए आकर में ढालकर तराशती है, तब जाकर कहीं इंसान निखरता है और एक पहचान बनती है उसकी । पर इस सबमें आपके सहमति की जरुरत है । ये सब तभी होगा जब आप ढलने के लिए तैयार होंगें । किसी ने ठीक ही कहा है – लोहा पहले खुद को लोहा करता है फिर जाके कुछ कारीगर करता है । अगर आप ढ़लने के लिये तैयार नहीं हैं तो निखरने की उम्मीद भी मत पालिये और पड़े रहिये अपनी उसी दशा और दिशा में ।

जिंदगी आपके किरदार में रंग भरती है । आप जितना ही जिंदगी के सवालों का जबाब देंगें, उसे सुलझाने का प्रयास करेंगें उतने ही रंगीले होते जायेंगें, उतने ही बहुमुखी होते जायेंगें । जो मास्टर साहब बचपन में सुहाते नहीं थे वही अब मेंरे आदर्श हैं और मैं उनका प्रिय शिष्य । कभी जिंदगी के साथ भी ऐसा सम्बन्ध हो जाये, कौन जाने ।

चलिए, फिर मुलाकात होगी !

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